अक्सर उन अनींदी रातों में,
या अधखुली आँखों में,
उन अनदेखे,
अधूरे से ख्वाबों में,
ढूंढ़ता हूँ तुम्हे मैं,
और तुम,
देखती हो मुझे,
खुशनुमा हवाओं के सांचे में,
ढली हुई,
पहली ओस की बूंदों में,
धुली हुई,
एक ज़िंदा ख्वाब सी,
अपनी उन भोली आँखों से,
तब खुद से पूछता हूँ मैं,
की क्या हो तुम,
सलोनी सी आँखों में,
अनदेखे ख्वाब लिए,
बदन को हौले से छूती,
हवा हो तुम,
या होठों पे शरारत भरी मुस्कान लिए,
मन के तारों को छेड़ती,
माँ की गोदी से अभी हो उतरी,
उस नन्ही परी के चेहरे पर,
मासूमियत की इब्तिदा हो तुम,
मंदिर से आती प्रार्थना के स्वरों की,
माँ के आशीर्वाद देते हाथों की,
या एक मनमौजी अख्खड़ फ़कीर की,
बख्शी हुई दुआ हो तुम,
तुम ही बता दो,
की क्या हो तुम.