बस यूँ ही,
आज यादों के पन्ने पलटते,
कुछ याद आया,
वो बारिश,
वो कागज के जहाज,
वो गुडिया,
और गुड्डे की बारात,
वो टूटी रंगीन सी चूडियाँ,
जो कभी सजाती थी,
माँ का हाथ,
लगता है,
की अभी कल ही तो,
मेरे दांत टूटे थे,
नई साइकल से गिर कर,
अभी कल ही तो,
खायी थी,
नानी से डाट,
अभी कल ही तो,
चुराए थे,
रामू काका के बाग से अमरुद,
और,
मुफ्त मिली थी पापा की मार,
राजा बन कर,
सुनाई थी सजा चोरों को,
तभी फोन की घंटी ने,
लगाया थप्पड़ इन यादों को,
और फिर,
याद आया की,
मुझे,
पहुंचानी थी आज रिपोर्ट,
बॉस की टेबल पर,
जाना था,
भाई के साथ,
हॉस्पिटल,
और मिलना था,
बेटे से स्कूल में जाकर,
फिर,
बॉस की पार्टी में भी तो जाना था,
और,
यादें,
अमरुद,
राजा का सिंहासन,
रामू काका का बगीचा,
और पापा की मार,
सब कुछ बह गया,
आँखों से निकले,
यादों के पानी में,
और मैं,
फिर लग गया,
कुछ नयी यादें बनाने में,
जो बहाएंगी कल,
किसी की आँखों से,
यादों का पानी….